मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

माँगना --------(याचना करना)

मांगना --------अर्थात ---------याचना करना
मांगने से अपने मे दीनता और जडता का भाव उदित होता है, जिससे अपनी ही द्रिष्टी में अपने को सम्माननीय नही पाते हैं। अपनी ही द्रिष्टी में सम्माननीय न होने की ब्यथा से बढ कर और बडा भारी "दु:ख" क्या हो सकता है। इस का अनुभव तो जो भुक्त भोगी हैं उन्ही को है। "सु:ख" लोलुपता के बसीभूत हो कर कामना पुर्ती के लिये भोग सामाग्री की मांग हम प्रमाद बस, उस से कर बैठते है, जो पहले ही इसी प्रमाद मे पड कर सामर्थ्य हीन है हमारी कामना पुर्ति करने मे, तब अपने पर बडा भारी "क्षोभ" होता है कि क्यो "मांगा" ऐसा तभी होता है जब अपने "स्वरूप" का विस्मरण होजाय, "स्वरुप" विस्मरण ही संसार से तादात्म्य है, जो कि शरीर, मन, बुद्धि आदि भी है, जो कि निरन्तर परिवर्तनशील है और जिसमे लेसमात्र भी स्थाइत्व का अनुभव किसी का नही है,फ़िर उससे "सु:ख" की प्राप्ती कैसे हो सकती है। अचाह होकर अर्थात मांगना बंद करके, निर्मम होना सत्संग है, सत्संग मे प्रवेश होने पर स्वत: "स्वरूप" का स्मरण होता है जो कि सु:ख-दु:ख से परे वास्तविक जीवन है अर्थात नित्य,अविनाशी, एवं सरस "जीवन" अर्थात 'सत्यं शिवं सुन्दरं' "है"

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

सुत्र>>>>>>सत्संग

आत्मानि प्रतिकुलानि -------न समाचरेत________
जो वर्ताव, बात, विचार, व्यवहार अपने लिए उचित या हितकारी या रुचिकर नही है, वह दुसरो के साथ कदापि नहीकरने से, सत्संग होता है जो सर्वांगीण विकास मे हेतु है जिससे शान्ति और सद्भाव उत्पन्न होगा, शान्ति से योग, योग से सामर्थता और सद्भाव से प्रसन्नता, जिससे निस्काम हो कर नि:संकल्पता स्वत: आयेगी और स्वरूप मेस्थिति हो जायेगी, स्वरुप मे अविचल स्थित रहने पर अमरत्व का बोध होगा जो कि जीवन मुक्ति है अर्थातवास्तविक जिवन है, जिसकी प्राप्ति सभी मानव का लक्ष है जो कि संभव है साधन करने पर, अर्थात आचरण हीसच्चा साधन है

जै सच्चिदानन्द
यह वाणी अपने परम प्रिय को समर्पित,
अस्तु सुभं