रविवार, 1 नवंबर 2009

प्रेम्………विश्वास………समर्पण………अपने को

अपना समर्पण तो जो अपना होगा उसी को होगा और जो अपना होगा वह अपना शोषण नही करेगा, वह तो अपने समर्पण मे, अपने को भी समर्पित कर देगा…ऐसा वही होसकता है जो अपने से अभिन्न हो॥ अपने से भिन्न मे, अपनी खोज युक्ति उक्त नही है, और अपने से भिन्न मे अपने को खोज ले, ऐसा अनुभव भी अपना नही है।।

अत्यन्त कठिन मर्ग पर यत्रा चल पडी है, पर असंभव नही है लक्ष प्राप्ती। विश्वाशिओ का विश्वास आज तक नही टूटा है, चलते रहने पर अवश्य मानवीयता के उस उच्च धरातल पर पहुचते है, जहां इतना प्रेम और करुणा है जो अपने मे समाती नही है, उसी प्रेम करुणा (मानवता) के हम पुजरी है जो स्त्रि और पुरुष दोनो मे है जिससे देश काल की दूरी नही है। यद्यपि ऐसा साधरणतया सर्वत्र दिखाइ नही देता है, यह अपना द्रिष्टि दोष है, अपना द्रिष्टि दोष मिटाने की जिम्मेदारी अपनी है। मेरे देखे यह समस्या स्त्रि पुरुष दोनो की है। मानव को स्त्रि और पुरुष मे विभाजित नही किया जा सकता है, स्त्रि मानव की मां है और पुरुष मानव का पिता, दोनो मे समता है, विसमता होने पर मानव की संभावना ही समाप्त हो जायेगी।।
अपनी समझ मे जो नासमझ है, वह दया और उदारता के पात्र है, नासमझ होना प्राक्रितिक दोष नही है, समझ कर नासमझ बनना दोष है, जो समझते है उनका कर्तव्य है, कि नासमझ को समझाए, और ना समझा सके, तो वह समझदार होने के मिथ्या अभिमान से, समझदारी के साथ मुक्त हो, मिथ्या अभिमान से मुक्त होने पर अपना कल्याण अपने द्वारा कर सकने की क्षमता स्वत: उत्पन्न होगी । जो समस्त विकरो को खा कर निर्विकार, एव नि:श्कामता प्रदान करने मे हेतु हो कर, जिसमे अपना विश्वास है उसमे समर्पण स्वत: हो जायेगा ॥ ( करना नही पडेगा ) समर्पण के पश्चात जिसकी प्रप्ती होगी, उसका वर्णन करेने नही आता, वह वर्णन से परे है।
क्वचित् उसे ही "प्रेम" कहते है

निवेदन- किसी ब्लागर का लेख पढ कर "टिप्पणी" लिख रहा था। पर विस्त्रित हो जाने से "टिप्पणी" नही रह गया, लेख का रुप ले लिया और उसी परम प्रेमास्पद को समर्पण ।